उदासीनता और उत्सुकता के बीच, समर की बेचैनी, उसे कई दिनों से झूला झुला रही है। धूल, कपास के रूएं, टूटे बाल और कुछ मृत पतिंगे, उसके कॉलेज के छोटे से कमरे के कोनों में इखट्टा होने लगे हैं। लोहे के खाट पर पड़े-पड़े समर अपनी टेबल-कुर्सी की ओर देख रहा है। जब वह बेचैनी से थक-हार जाता है तो बड़ा अकेला महसूस करता है। जैसे उसकी बेचैनी ही थी जो उसे अकेलेपन के एहसास से बचाए हुए थी। निपट अकेला नहीं है वो, कई साथी भी हैं। सब दूर हैं। बात भी कभी कभी करते हैं। पर साथी हैं समर के। एक ने आज उसे फोन भी किया था, कई महीनों बाद। फोन नहीं उठा।
समर व्यस्त नहीं था, पर फोन देखते ही वह पत्थर हो गया। गुज़रते समय का कोई उपयोग न कर पाने के खयाल ने उसे फिर उसी झूले पर बिठा दिया। और समर का समय, वो कमरे के एक कोने मे बैठ उसे झूला झूलते देखने लगा।
“वो दोस्त शायद ज्यादा समय नहीं लेता मेरा।” उसने मन ही मन सोचा। “कैसा है यार?”, “कहाँ है”, “क्या कर रहा है आज-कल?”, “कितना टाइम हो गया बात नहीं हुई हमारी, मिलते है कभी?” “चल, ध्यान रख!” यही सब कह पाते वे एक दूसरे से और कोई अनजाने अधूरे काम की बेचैनी, फोन काट देती उनका।
अब उदासीनता के छोर से, बेचैनी ने समर को एक प्रेमी के खयालों की ओर, उत्सुकता, में दखेल दिया। हसीन बातें होती।
“दिन कैसा था, उदास हो या उत्सुक?”, “तुम्हारा दिन कैसा रहा, सेहत ठीक है न तुम्हारी?”, “किसी चीज ने आज बेचैनी तो नहीं बढ़ाई? देखो दुनिया कितनी जालसाज और निर्दयी है। तुम अपने आप को मत कोसो।”, “चलो कल जवान देखने चलते हैं।”, “मैं तुम्हारे साथ हूँ यार, सब कर लोगे तुम”, “मैं भी अपने कार्यस्थल के साथ अपना रिश्ता संशोधित करना चाहता हूँ, मैंने निश्चय कर लिया है।”
कुछ देर तक उसकी कल्पनाओं ने, अप्रिय बेचैनी को, ख्यालों में प्रेरित रखा हुआ था। परन्तु एक बेचैन बादल ने समर को फिर उदास कर दिया। यह बादल था उसके प्रथक प्रेम के सागर, परिवार से, जहां उसके कर्मों की सभी नदियां बनी थी और जहाँ मिलती हुई नज़र आती हैं।
परिवार से समर बेचैनी के झूले से उतर कर ही बात करता है। यदि वे उसे विडिओ कॉल पर बेचैन पाते हैं तो स्वतः ही बेचैनी— पढ़ाई का रूप ले लेती है। हर बार यही रूप लेती है, पच्चीस वर्ष से अधिक समय हो गया है इस बहाने को। नहीं समर कोई अज्ञात अव्वल नाटककार नहीं है, इस झूँठ को सभी परिवारजन अच्छी तरह पहचानते हैं। समर का नाटक प्रारंभ हुआ—
“हैलो मम्मी”, नमस्ते बोले हुए तो कई वर्ष हो गए समर को,
“और सब ठीक है?”,
“हा, और आप कैसे हो?”, समर ने अपनी नज़र कैमरा से चुराते हुए पूछा।
“काम कर रहे हो कुछ?”,
“हा पढ़ रहा हूँ, पापा कैसे—”,
“कर लो कर लो, हा ठीक हैं”,
“व्यस्त रहो, मस्त रहो, स्वस्थ रहो”, उसके पिता जी की आवाज ने कहा।
“ठीक है, बाय, गुड नाइट।”
समर फिर बेचैन हो उठा। उसे अपने जीवन के नाटक का यह किरदार बहुत नापसंद है। हर प्रिय, पराया, दोस्त, और दुश्मन, बस दर्शक बनते हैं इस किरदार के। कोई न कुछ पूछता है न बतलाता है उसे। वह अपने झूले पर वापस पहुँच गया। और उसका समय फिर किसी कोने में जा बैठा।
“अमूमन, अभिभावक एक समय के उपरांत, दर्शक होने का ही किरदार निभाते हैं” इस बंजारे ख्याल से समर आत्म घृणा से भर उठा। अपनी परिवार प्रधान चेतना को पूर्ण रखने के लिए वह अपने अभिभावकों की अनुभूति करने लगा। आखिर उन्होंने इस जालसाज और निर्दयी समाज के साथ समर से कई ज्यादा समय बिताया है। समाज की जिम्मेदारियों को, उन्ही की समय सीमाओं में, जल्दी-जल्दी, वे निभाते रहे। वे व्यस्त रहे। बेचैन रहते हुए भी कार्य में व्यस्त रहना उनके लिए आम है। कभी उसके बारे में कुछ पूछने बताने का समय न उन्हे दिया गया, न उनसे लिया गया।
“चूँकि, मैंने भी कभी देखा नहीं है उन्हे अपनी बेचैनीयां व्यक्त करते हुए तो मैं भी नहीं कर पाता उनके साथ। इसमे दर्शक होने की बात कहाँ हुई भला।”, “ऐसे तो मैं भी दर्शक ही था अपनी किशोरावस्था में”, एक बगावती खयाल ने व्यंग दिया। इस पहले घृणा उसे घेरती, बेचैनी ने उसे उत्सुकता की ओर धकेल दिया।
“ओह, क्या इसलिए मेरी सोहबत के सभी दोस्त, इस समाज का विरोध करने के लिए, सभी कार्यों की समय सीमा त्याग चुके हैं?” फोन रखते ही समर इस नए खयाल से उत्सुक हो उठा। जैसे उसने किसी कठिन प्रश्न का उत्तर ढूंढ लिया हो।
“समाज को नहीं, अब हम उसकी प्रक्रियाओं से उत्पन्न होती बेचैनी को समय दे रहे हैं।” इस बार खयाल सामाजिक न्याय से प्रेरित था और वह अपने ख्यालों में ही अपनी बेचैनी के साथ उसका एक वैज्ञानिक विश्लेषण सा करने लगा।
”परंतु बीतते समय के साथ बेचैनी बढ़ती ही जा रही है, ऐसे तो कोई हल नहीं निकलेगा।” इस चक्रव्यूह को कैसे भेदेगा समर?
“ये बेचैनी मेरे अकेले की तो नहीं है। कुछ मैंने अपने परिवार से ली है, कुछ मैंने समाज से ली है। परिवार बेचैन है कि सामाजिक कर्तव्यों को हम कब समय देंगे। समाज बेचैन है कि हम नया परिवार बनाने योग्य कब बनेंगे। एक और पुरुषप्रधान और पूँजीप्रधान परिवार। उसके भी प्रथम लक्ष्य होंगे सत्ता और संपत्ति। कितने मिडल क्लास लक्ष्य हैं! नि:संदह यूपीएससी ही मिडल क्लास का मोक्ष है।” बिना किसी सामाजिक विज्ञान की डिग्री के, समर ने अपने अनुभवों की भाषा में ही विश्लेषण जारी रखा।
“मिडल क्लास को यह स्पष्ट क्यों नहीं दिख रहा कि बेचैनी का बढ़ता भार हर पीढ़ी में बस कंधे बदल रहा है?”
“मेहनतकश माता-पिता अगली पीढ़ी को बेचैनी से बचाने के प्रयत्नों में सत्ता और संपत्ति को प्राथमिकता क्यूँ दे रहे हैं?”,
“क्यूँ हर मनुष्य की योग्यता इसी तराजू में तौली जा रही है?”,
“छल, कपट, भ्रष्टाचार और अपराध करते पुरुष सत्ता में क्यूँ बैठे हैं और यह आम बात क्यूँ है।”,
“क्यूँ ज्ञान, प्रेम, भ्रात्रत्व और नए विचारों से हमारी योग्यता नहीं देखी जा रही?” यह सोचते ही समर को ज्ञात हुआ कि ये कोई नए विचार नहीं हैं।
ये विचार तो औद्योगीकरण और पूंजीवाद जीतने प्राचीन हैं। कितने वर्षों से ये विचार समाज में भोले-भाले और जिज्ञासु जनों में बेचैनी बन के घूमते रहते हैं। पुरुषप्रधान समाज और पूँजीप्रधान जीवन। इनके बीच कोई प्रेमप्रधान जन, सबकी बेचैनीयों को संगठित कर जाए, तो क्रांति आए। समाजवाद के लिए समाज को बदलना भी तो पड़ेगा।
“अब तो सब डेलोलूलू में ही जियेंगे क्यूँकी इस भयावह स्थिति को बनाने वाला समाज इससे निपटने योग्य नहीं है।”, इसी विचार के साथ वह बेचैनी से अंततः थक-हार गया। उसके हथेलियाँ की नमी सूखने लगी। और अकेलेपन में उसे एहसास हुआ की समय भी चल पड़ा है। उसने अपना फोन उठाया और कॉल लगाया। टरिंग टरिंग। टरिंग टरिंग। फोन नहीं उठा।